पालखी : पंढरपुर की धार्मिक यात्रा(Palkhi Yatra to Pandharpur - Hindi Blog)
पंढरपुर पालखी यात्रा(Pandharpur Palkhi) अथवा पंढरपुर वारी(Pandharpur Wari) एक प्राचीन धार्मिक यात्रा है जो महाराष्ट्र में पुणे के आलंदी(Alandi) और देहू(Dehu) से शुरु होकर सोलापुर जिले के पंढरपुर स्थान तक होता है। पंढरपुर में भीमा नदी(Bhima River) के किनारे भगवान श्रीकृष्ण के एक रुप भगवान विट्ठल(Bhagwan Vitthal) का मंदिर है। भगवान विट्ठल को विठोबा(Vithoba) या पांडुरंग(Pandurang) के नाम से भी जाना जाता है। भगवान विट्ठल की मूर्ति बहुत आकर्षक है जिसमें भगवान ईंट के ऊपर कमर पर हाथ रखकर खड़े हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विट्ठल की कहानी कुछ यूँ है कि भगवान श्रीकृष्ण के एक बहुत बड़े भक्त थे संत पुंडलिक(Sant Pundalik)। संत पुंडलिक अपने माता पिता के भी परम भक्त थे और हमेशा माता पिता की सेवा में लीन रहते थे। एक बार भगवान श्रीकृष्ण संत पुंडलिक को दर्शन देने उनके घर आये। उस समय संत पुंडलिक अपने माता पिता की सेवा में इतने व्यस्त थे की उनको भगवान के आने का पता ना चला। जब भगवान श्रीकृष्ण ने संत पुंडलिक को पुकारा तब संत पुंडलिक ने एक ईंट भगवान की ओर रखते हुए बोले की भगवान आप इस ईंट पर प्रतीक्षा करिये मैं थोड़ी देर सेवा करने के बाद आता हूँ। ऐसा बोलकर वह फिर से अपने माता पिता की सेवा में लग गए। संत पुंडलिक की सेवा भावना से खुश होकर भगवान श्रीकृष्ण अपने कमर पर हाथ रखकर ईंट पर खड़े हो गए। बाद में जब भगवान श्रीकृष्ण ने संत पुंडलिक से वरदान माँगने को कहा तो पुंडलिक ने उनसे इसी रुप में हमेशा के लिए रह कर भक्तों को दर्शन देते रहने का निवेदन किया। इस निवेदन को भगवान ने स्वीकार कर लिया। ईंट पर स्थापित भगवान को इसी कारण से भगवान विट्ठल(Bhagwan Vitthal) के नाम से जाना जाता है। संत पुंडलिक के वजह से यह स्थान पुंडलिकपुर कहलाया जो कालांतर में जाकर पंढरपुर(Pandharpur) हो गया।
पंढरपुर(Pandharpur) की पालखी(Palkhi) यात्रा को पंढरपुर वारी(Pandharpur Wari) के नाम से भी जाना जाता है। मराठी शब्द वारी का अर्थ है यात्रा करना और जो भक्तिभाव से अपने धार्मिक स्थान की यात्रा बार बार करता है उसे वारकरी(Warkari) कहा जाता है। पंढरपुर वारी में हिन्दू माह आषाढ़(जून-जुलाई) की एकादशी के दिन भगवान विट्ठल का दर्शन करने के लिए महाराष्ट्र के अलग अलग स्थानों से लाखों लोग यानी वारकरी पंढरपुर(Pandharpur) की ओर पैदल निकल पड़ते हैं। धार्मिक भावना से सराबोर होकर लोगों का समूह भजन कीर्तन करते हुए हाथ में भगवा झंडा थामे अपने आराध्य के दर्शन करने दिन रात चलता है। भजन कीर्तन करते चलते इन समूहों को मराठी में दिंडी(Dindi) भी कहा जाता है। हर दिंडी अथवा समूह का एक अलग दिंडी क्रमांक(Dindi Number or Group Number) होता है जिससे उस समूह की पहचान होता है।
महाराष्ट्र(Maharashtra) महान संतों की भूमि हैं और यह पालखी(Palkhi) यात्रा इन्हीं संतों के जन्मस्थान या समाधि स्थलों से शुरु होता है। पालखी में एक सुसज्जित बैलगाड़ी पर संतों की चरण पादुकायें रखी जाती हैं। इन बैलगाड़ियों को ताकतवर बैल खींचते हैं जो आकर्षक तरीके से सजाये हुए होते हैं। वैसे तो अनेक पालखियाँ पंढरपुर(Pandharpur) जाती हैं लेकिन इनमें दो पालखियाँ प्रमुख है। पहली पालखी संत तुकाराम महाराज(Sant Tukaram) के जन्म स्थान देहू नामक स्थान से होती है जो पुणे से लगभग 28 किलोमीटर दूर है। दूसरी पालखी संत ज्ञानेश्वर(Sant Gyaneshwar or Dnyaneshwar) की होती है जो पुणे से 27 किलोमीटर दूर उनके समाधि स्थल आलंदी(Alandi) से शुरु होती है। देहू और आलंदी से पंढरपुर की पालखी(Palkhi) यात्रा करीब 250 किलोमीटर की है जो 21 दिनों में पूरी होती है। यात्रा के दौरान कब और कहाँ खाना या ठहरना है किस दिन कितना चलना है या किस मार्ग पर चलना है सब प्राचीन समय से निर्धारित हैं। प्रशासन के अलावा बहुत सारे लोग और संस्थायें पालखी मार्ग में वारकरी के लिए नाश्ता, पानी और भोजन की व्यवस्था भी करती हैं।
➜पंढरपुर की पालखी यात्रा का उद्देश्य : आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर में भगवान विट्ठल का दर्शन करना।